Sunday, May 17, 2020

मैं रोज़ आँखों

मैं रोज़ आँखों से पानी बहता हूँ,
ये सोचकर के सफर सुनहरा है... 
मगर कोई नज़राना नहीं। 

में कभी सोचता हूँ.... 
के ये कैसी लो है कंदील के जैसी,
जिसमे बदन का जलना तो पसंद है, 
मगर सुलगना नहीं। 

मैं कभी सोचता हूँ के .... 
ये कैसी रात है जो कटती नहीं, 
जिसमे मुझे आँखे तो बंद करनी हैं 
मगर सोना नहीं। 

कभी सोचता हूँ......  
मुझे घर से तो नकलना है ,
पर क्या आँखों में सपना नहीं। 

कभी सोचता हूँ। ...... 
क्या मेरे अपने मेरे साथ खड़े है, 
पर सच झूठ है बहाना नहीं।

कभी सोचता हूँ। ....  
के अगर वो मिल जाये किसी मोड़ पर ,
उसे सब कुछ कह दूंगा साँसे साँसो में उलझा दूँगा,
 मगर ऐसा कोई फशाना नहीं। 

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