अज़्मे सफ़र हमारा कभी रायगाँ न हो
हम जिसको ढूंढते हैं जहाँ वो वहाँ न होशरमा के सुन रहे थे वो क़िस्सा विसाल का
दिल चाहता था ख़त्म कभी दास्ताँ न हो
हर दर्दो ग़म के बाद भी खुश बाश मैं रहूं
लब पर ख़ुदा करे कभी आहो फ़ुगाँ न हो
मैंने बुझा दिया था चराग़ों को इस लिए
ये है शब-ए-विसाल कोई दरमियाँ न हो
ऐसा भी इश्क़ में कहीं होता है ऐ 'असर''
वो चाहता है आग लगे और धुआँ न हो
- अली 'असर' बांदवी
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