Sunday, June 23, 2019

मख़लूत हरफ़...मेरी डायरी से

मख़लूत हरफ़...मेरी डायरी से


मेरी सब कोशिशें, सब साजिशें, नाक़ाम सी लगे। 
मुझे मेरी फज़ीहते, सरेआम सी लगे। 
जिन्हे समझना भी आसान नहीं 
और सहना भी आसान नहीं। 

मुझे तेरे आशियाँ की कीमत ,
अपने मकान से कम सी लगे। 
हमे जब अपनी कीमत ,
तेरे घर में कम सी लगे। 
जिसे खरीदना भी आसान नहीं ,
गवाना मेरी भी आसान नहीं। 

किसी रक़म का कोई कर्ज सा लगे।
ये तेरा गुमान ही हमे तेरा मर्ज सा लगे। 
जिसे चुकाना भी आसान नहीं ,
और तोडना भी आसान नहीं। 

ये तेरी बे -दा - दिली नर्क सी लगे। 
अब तो तेरी दरिया - दिली में फर्क़ सा लगे। 
जिसमे रहना भी आसान नहीं ,
और जिसके बिना रहना भी आसान नहीं। 

फिर भी तेरे इश्क़ का जुनून ,
सिर पे चढा इस क़दर लगे। 
मुश्किल है के अब किसी और से नज़र लगे। 

और आख़िर में ,
कागज़ पे उतरा वरक सा लगे। 
तेरा इश्क़ तो हनी, मख़लूत हरफ़ सा लगे।
जिसे लिखना भी आसान नहीं ,
और पढ़ना भी आसान नहीं। 




Written by :- Honey A. Dhara

June 24 , 2019
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