मेरी डायरी से :- मेरे और मेरे दोस्तों के जज़्बात... भाग - I (1)
एक रोज़ चला मैं, अपने घर से अंजन शहर में।
बारीश छम - छम में , तपती दुपहर में।
फिर अचानक मिले कुछ दोस्त,
संजीत, अंतोष, देव, सचिन, सोनू, और परमिंदर मैं।
वक़्त फूंक के मैं, श्याही बनता हूँ।
आओ तुम्हे कुछ दोस्तों के जज़्बात सुनाता हूँ /
चलो शुरू करे। ...
ना थी बेचैनी कोई , ना ही परेशानी कोई ,
थे अजीब फ़शाने ,पर थे बचपन निराले।
कटर - पैन्सिल छीने, तोड़ी दप्टी,
बस्ते फाड़े, पर थे वो दोस्त निराले।
ना लाइट के उजाले, ना थे डिजिटल जमाने,
जब मैं पढता था।
तब लालटेन में ही सजती थी, सवरती थी, वो रौशनी,
जिसमे मैं पढता था।
एक वो कच्ची बस्ती जो,
तेरे शहर के पीछे बस्ती थी।
उन कच्ची पक्की गलियों में,
एक भूली बिसरी लड़की अक्षर मुझे मिला करती थी।
एक वो मिठास ममता की,
वो जाना पहचाना स्वाद रोटी का।
पर अब हालत कुछ और है हनी,
अब जायज़ा क्या दू मैं डूबती किस्ती का।
आगे का भाग -II(2) में ...
आगे का भाग -II(2) में ...
Written by :- Honey A. Dhara
July 05 , 2019
July 05 , 2019
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